Sunday, March 20, 2016

अंतहीन दौड़

अंतहीन दौड़

हम कहाँ जा रहे हैं , कहाँ भाग रहे हैं ,
बदहवास किसके पीछे ,ये कौन सी कस्तूरी है ,
जिसने इस विवेकशील मनुष्य को मृग बना दिया ,
न कोई ओर है, न कोई छोर ॥

अटल सत्य, समय से स्पर्धा करते है ,
गिरते हैं ,उठते हैं ,दौड़ते हैं ।
दौड़ निरंतर जारी रखते हैं ,
अनियंत्रित,असंख्य इच्छाएं उबाल लेते रहते हैं ।।

तो इसमें बुराई क्या है
 इच्छाओं  की पूर्ति करना क्या ख़राब है ।
समय की रफ़्तार पकड़ना क्या गुनाह है ,
अरमानों की उड़ान भरना क्या गलत है ।।

कदाचित इसमें कोई खोट नहीं है ,
लेकिन गलत है संवेदनशून्य हो जाना ।
दूसरे के दुःखो से मुँह फेर लेना,
किसी असहाय को इसके हाल पर छोड़ देना ॥

क्या अंत है इस अंतहीन दौड़ का ,
क्या हम कभी थक के बैठेंगे और सोचेंगे ।
हमने इस दौड़ में कितनों को रौंदा ,
कितनी धूल उड़ाई ,कितने कुचले गए हमारे ठोकरों से ॥

कृत  -- कुणाल

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