Tuesday, June 19, 2012

Whirling Life of Rural India

                                                                                बदला हुआ मंजर

छठ पर्व का समय था , मैं अकस्मात ही मिथिला में स्तिथ अपने गाँव ' ब्रहमपुरा' पहुँच गया था | चार दिन चलने वाला यह पर्व पूरे बिहार , पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल में अगाध श्रद्धा और धूमधाम से मनाया जाता है |लगभग १० बरसो से मैंने अपने गाँव का छठ पूजा नहीं देखा था | इस पूजा को लेकर पूरे गाँव में उत्साह का वातावरण था | उसी दौरान मुझे गाँव के एक भोज में शामिल होने का अवसर भी मिला |  गाँव का भोज शहरों की पार्टियों से थोडा भिन्न होता है | गाँव के भोज में छोटे बड़े सभी को पुआल की बीड़ी ( पुआल की छोटी गठरी ) पे निचे बैठ कर खाना होता है | पानी पिने के लिए सभी अपने घर से ग्लास या लोटा लेकर आते हैं | पहले गैस की लाइट जिसे फनिस्वर नाथ रेनू जी ने " पञ्च लाइट " कहा था , का इस्तेमाल रौशनी के लिए किया जाता था  | अब गाँव में भी जेनेरटर और बल्ब की व्यवस्था देखि जा सकती है |
मैं भी अपने गाँव के भाई , काका और दादा जी सब के साथ पुआल की बीड़ी पे बैठ गया | एक के बाद एक पकवान आते गए | एक ही पत्तल पर सारे पकवान को सम्भाल पाना भी अपने आप में एक कला है | यहाँ लोग शहरों की तरह चख चख कर नहीं खाते , गप्पा गप खाते हैं | भोजन परोसने वाला सह्रदय आग्रह करता है और कोशिश करता है की खाने वाला शर्म और हिचकिचाहट छोड़ जम कर भोजन का लुफ्त उठाएं | खाने के दौरान हंसी मजाक , टिका टिपणी भी चलते रहते है | पूर्व के किसी भोज की भी चर्चा छेड़ दी जाती है और लोग अपने अनुभव बढ़ चढ़ कर बताने लगते हैं | इन्ही सब चीजो के बीच लोग अपने खुराक से कुछ जाएदा ही खा लेते हैं | मैं भी बातों का आनंद उठाते उठाते अपने नियमित खुराक से जाएदा खा चूका था |पर मुझे इस भोज में खाने का जायका उतना उम्दा न लगा जितना उम्दा पहले कभी हुआ करता था | पूछने पर पता चला की भोजन बनाने के लिए भाड़े के हलुवाई आयए थे |मुझे यह सुनकर आश्चर्य हुआ | यह गाँव के तरीके से थोड़ा भिन्न था | गाँव में भोज की तैयारी गाँव के लोग ही आपसी मेल मिलाप और समझ बुझ से कर लेते हैं | कोई सब्जी बनाने में माहिर तो कोई दाल तो कोई दुसरे पकवान में | पकवान बनाने का उनका तरीका भी हट कर होता है | मिटटी खोद कर चुल्हा बनाया जाता है| खाना बनाने से पहले चूल्हे का विधिवत पूजा भी किया जाता है | उसके बाद लकड़ी की सोंधी आंच पर खाना तैयार होता है |  खाने का स्वाद और उसकी खुशबू लाजवाब होती है | लकड़ी की जगह अब गैस चूल्हे का इस्तेमाल होने लगा है | पारंपरिक ढंग से भोजन बनाने वाले लोगो की कमी हो गयी है | और कमी हो गयी है आपसी प्रेम और मैत्री की |
लोग छठ में ट्रेनों में ठस्म ठस भर कर गाँव ४-५ दिनों के लिए आते हैं | ३ महीने पहले भी ट्रेन में आरक्षण मिलना किसी गोल्ड मेडल से कम नहीं है | गाँव के लोग भी इस पर्व का पूरे साल इंतज़ार करते हैं की अपने और पड़ोस के घरों में शहरों से इनके अपने आयेंगे | दादी को पोता पोती के लिए पकवान बनाने का मौका मिलता है | दादा जी उन्हें कंधे पर बैठा पूरे गाँव में घुमाते हैं और अपने खेत खलियान दिखाते हैं | सारी करवाहट और शिकायत को किनारे कर वो इस ४-५ दिन एक अलग दुनिया में खो जाते हैं | शहर से आयए लोग नए कपड़े पहनते हैं, नए चमकदार मोबाइल और कैमरे दिखाते गाँव में घूमते हैं | गाँव के लोग उन्हें कोतुहल भरी नज़रों से देखते हैं और आह भरते हैं की वो कब शहर जायेंगे | शहरों के तरफ पलायन का आलम ये है की २०-४० साल की उम्र का शायद ही कोई नवयुवक आज गाँव में रुका हो | जिसे जहाँ मौका मिला वो उधर ही निकल गया| रह गए हैं तो बूढ़े , औरतें और बच्चें जिनके पिता की आमदनी बहुत जाएदा नहीं है | पलायन वैसे तो हर वर्ग में है पर ऊँची जाती , हिन्दू हो या मुसलमान , में सबसे जाएदा है |
परिस्थितियाँ कुछ बदली जरुर हैं | गाँव में अब ६-७ घंटे बिजली रहती है | फुश की झोपरियों की जगह पक्के के मकान खड़े हो गए हैं | सुबह सुबह बच्चे पोशाक पेहेन कर स्कूल जाते दिख जाते हैं | मजबूत सड़को पर गाड़ियाँ सायें सायें करते निकल जाती हैं | फिर भी गाँव अपने मजबूत कंधो वाले बेटों की राह देख रही है  जिनका बचपन इस गाँव में बिता | जिन्होंने ने अपने नह्ने नह्ने कदमो से गाँव की धुल भरी गलियों में दौड़ लगायी थी | जिन्होंने गाँव के तालाबों और पोखरों के घाट पर बने चबूतरों से लम्बी छलांग लगायी थी | वो गाँव का मंदिर उनकी राह देख रहा है जिनकी घंटी बजाने के लिए अपने दादा जी के कंधे पर चढ़ जाया करते थे |आज  भले ही उस मंदिर की दीवार थोड़ी ढेह गयी है | जिन आम के पेड़ो पे उन्होंने गुलेल चलाई थी वो पेड़ आज भी इस गाँव में हैं |हाँ थोडा बुड्ढा हो चला है पर नए पत्तो और नए फलों के साथ आज भी वो उनका इंतज़ार कर रहा है |

कृत :- कुणाल